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हिंदी कहानियां - भाग 50

फ़ारस के शहंशाह और बादशाह अकबर अक्सर एक-दूसरे को उपहार भेजा करते थे. एक बार उपहार में फ़ारस के शहंशाह ने बादशाह अकबर को एक दुर्लभ किस्म का इत्र भेजा.


इत्र लगाने की चाहत में अकबर अपने कक्ष में गए और इत्र की शीशी खोलने लगे. लेकिन जैसे ही उन्होंने शीशी खोली, इत्र की एक बूंद जमीन पर गिर गई. अकबर फ़ौरन घुटनों के बल बैठ गए और उंगली से समेटकर इत्र की उस बूंद को उठाने लगे. ठीक उसी समय किसी काम से बीरबल कक्ष के अंदर आ गया.

घुटनों के बल बैठे अकबर ने जब बीरबल को अपने सामने पाया, तो वे हड़बड़ा गए. उस हालत में अकबर को देखकर बीरबल मुँह से तो कुछ ना बोला, लेकिन उसकी आँखें हँस रही थी.

अकबर को बेहद शर्मिंदगी महसूस हुई. हिंदुस्तान का बादशाह इत्र की एक बूंद के लिए अपने घुटनों पर आ गया. ये शर्म वाली बात तो थी. अकबर को लगा कि बीरबल अवश्य ऐसा ही कुछ सोच रहा होगा.

उस समय तो वे कुछ न बोल सके. लेकिन उनका मन उन्हें अंदर ही अंदर कचोट रहा था. वे किसी भी तरह बीरबल की अपने प्रति धारणा बदलना चाहते थे.

इसलिए अगले ही दिन अपने शाही हमाम को उन्होंने इत्र से भरवा दिया और एलान करवा दिया कि कोई भी आकर वहाँ से इत्र ले जा सकता है. लोग वहाँ से बाल्टी भर-भरकर इत्र ले जाने लगे.

अकबर ने बीरबल को बुलवा लिया और यह नज़ारा दिखाते हुए बोले, “बीरबल! देखो प्रजा कैसे ख़ुशी से बाल्टी भर-भरकर इत्र ले जा रही है. क्या सोचते हो इस बारे में?”

अकबर की मंशा बीरबल को ये दिखाने की थी कि हिंदुस्तान का बादशाह अकबर इत्र के मामले में कंजूस नहीं है. वह चाहे तो हमाम भर इत्र दान कर सकता है.

बीरबल मंद-मंद मुस्कुराते हुए बस इतना ही बोला, “बूंद से जाती, वो हौज से नहीं आती.” अर्थात् पूरा सागर भर देने के बाद भी वो कभी नहीं लौटता, जो एक बूंद से चला गया हो.

बीरबल ने इस वाक्य के सहारे कह दिया कि अकबर की इत्र का बूंद उठाने की स्वभाविक कंजूस प्रवृत्ति के कारण जो इज्ज़त चली गई है, अब वो पूरा का पूरा सागर भर देने के बाद भी वापस नहीं आ पायेगी.

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